शराब
मैं शराब नहीं पीता । ऐसे में यार दोस्तों की महफिल में मेरे होने या ना होने से ज्यादा फर्क नहीं पडता । मिल बैठने की बात हो तो सब एक राग अलापते हैं - यार तू तो पीता भी नहीं है । क्या करेंगे मिल बैठकर ?
कुछ समय से मैंने कोला पीना भी बंद कर दिया है । वरना पहले वो शराब लेते तो मैं कोला के ग्लास को लेकर चीयर्स कहता । हमेशा इस कोशिश में भी जुटा रहता हुँ की कुछ दोस्त जैसे-तैसे मेरे गुट में शामिल हो जाए । पर अब तक सब नाकाम । साथ ही कवियों और शायरों ने शराब को जिस तरह से “romanticise” किया है वहाँ मेरी क्या चलेगी । पर अजीब बात ये है कि हर शराबी के तर्क लगभग एक से हैं । मेरी कुछ नाकामयाब कोशिशें॰॰॰॰॰॰॰
पहला पेग़….
मैं : इतनी ज़ल्दी मरने का इरादा क्यों है ? क्या करोगे इतनी शराब पी कर ?वो : तुम क्या करोगे इतनी लम्बी ज़िन्दगी जी कर ?
दूसरा पेग़…..
मैं : ये escapist attitude है । तुम ज़िन्दगी से भाग रहे हो ।वो : तुम भी तो ज़िन्दगी मे भाग ही रहे हो । कहीं पहुँच भी रहे हो ?
तीसरा पेग़…..
मैं : खुशी में दारु, ग़म में दारु। कुछ काम बन जाए तो दारु , काम न बने तो दारु , बहुत ज़्यादा काम हो तो दारु , कुछ काम न हो तो भी दारु । तुम्हें बस पीने का एक बहाना चाहिए ।वो : तुम भी तो जीने का बस एक बहाना ही ढुंढ रहे हो । मिल जाए तो बता देना ।
मैं : यूं घुट-घुटकर मरने का क्या फायदा ?वो : यूं घुट-घुटकर जीने का क्या है फलसफा ?
चौथा पेग़……
मैं : अपनी नहीं तो घरवालों की सोचो । उन्हें पता चलेगा तो कितना दुखी होंगे ।वो : दुखी तो मैं भी हुँ । कम से कम ये तो नहीं पता है उन्हें । वरना और दुखी होगें ।
नई बोतल……
मैं : अब बस भी करो । आज बहुत पी चुके तुम ।वो : तुम girlfriend मत बनो । यार तुम दोस्त हो दोस्त ही रहो ।
आपके पास कोइ और तर्क है क्या
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